कुछ लेखक-कलाकार ऐसे होते हैं जो जितनी जिम्मेवारी और प्रेम से अपने निजी परिवार की दुनिया में मगन होते हैं, उतनी ही जिम्मेवारी और प्रेम से कला-साहित्य के वृहद परिवार में भी अपने को चुपचाप सक्रिय रखते हैं। और ऐसा करते हुए एक प्रसन्नता का ही अनुभव करते हैं, किसी बोझ का नहीं। ज्योत्स्ना मिलन ऐसी ही लेखक-कवि थीं और उनके निधन के बाद जो बात मन में सबसे ऊपर है, वह यही कि हमने अपना एक पारिवारिक सदस्य खो दिया है। इससे उनके लेखक-कवि होने का भान कम नहीं हो जाता, वह बढ़ता ही है, क्योंकि जैसे हम अपने परिवार के किसी सदस्य की उपलब्धियों से खुश होते हैं, वैसे ही हम सहज रूप से उनकी उपलब्धियों से खुश हुआ करते थे। और ये उपलब्धियाँ कम नही है - आज और ज्यादा दिखाई पड़ रही हैं। इसी वर्ष मार्च के महीने में उनके साक्षात्कारों की पुस्तक ‘कहते-कहते बात को’ हाथ लगी थी, और मैं उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ गया था। पढ़ते हुए यह अचरज भी होता रहा कि कई बातें हमें मालूम नही थीं, जैसे कि अपने परिवार के सदस्यों के बारे में भी हमें कहाँ मालूम होती हैं, जब तक कि वह खुद या कोई और हमें उनके बारे में बता न दे। हमारे लिए तो अमूमन इतना ही काफी होता है कि अमुक हमारे परिवार का सदस्य है, उसका स्वभाव कैसा है, मोटे तौर पर उसका कामकाज क्या है। उसकी रुचियाँ क्या है, और वह किन-किन चीजों में अत्यधिक कुशल है। सो ज्योत्स्ना जी हमारे लिए एक ऐसी पाकशास्त्री (भी) थीं जिसके बनाए हुए व्यंजनों का स्वाद अपूर्व हुआ करता था। वह वीरेंद्र कुमार जैन की सुपुत्री होने के साथ ही हमारे प्रिय आत्मीय, सखा रमेशचंद्र शाह की पत्नी थीं, और मानों इस नाते क्रमशः उनके व्यंजनों में गुजराती, मालवी (मध्यप्रदेशी) उत्तराखंडी व्यंजनों का कुछ स्वाद भी घुलता-मिलता गया था, पर ज्योत्स्ना जी की रसोई कुल मिलाकर मौलिक थी, ठीक उसी तरह जैसे कि उनका लेखन ‘मौलिक’ है, अनेक रसों से परिपूर्ण, विनम्र, सहज, अनुसंधानी, सूक्ष्मदर्शी और अपनी ऊपरी सहजता-सरलता में बहुत गहरा और परिपक्व। उनके उपन्यासों ‘अस्तु का’ और ‘केशरमां’ की चर्चा ठीक ही काफी हुई है, पर, मेरे लिए उनकी ‘पोद्दार चाल’ एक ऐसी कहानी है, जिसे मैं हिंदी की कुछ श्रेष्ठ कहानियों के बीच रखना चाहूँगा। मैं इस कहानी की चर्चा उनसे भी अक्सर किया करता था। अतीत की स्मृतियाँ, भविष्य में उन स्मृतियों को कितना और कहाँ तक देख पाती (सकती) हैं, किस रूप में, यह इसकी आधारशिला है। एक छात्रा, अपने प्रिय अध्यापक (कों) के जीवन को अपने युवा दिनों के बाद भी तलाशती (रहती) है, और अपनी हर मायके-यात्रा में उनसे मिलने पहुँचती है - उनके जीवन में क्या घटित होता (रहता) है, इसकी भी यह कहानी है। अत्यंत मर्म भरी। ‘जीवन का पीछा करता हुआ जीवन’ यहाँ है, अपने कई रंगों में। ज्योत्स्ना जी ने अपने देखे-जाने जीवन का ही शोध अपने और हमारे अपने लिए किया है; और कह सकते हैं कि इस शोध से उन्होंने जीवन-मर्म के ही कई मोती निकाले हैं। उनकी छोटी-सरल सी कविताओं की दुनिया के आशय व्यापक हैं, और उनकी अंतरंगता सहज ही मोह लेने वाली है।
भोपाल जाने पर उनके घर में उनकी ‘रसोई’ का आनंद उठाने का मोह हम छोड़ नहीं पाते थे, साथ ही, उनसे उनकी कुछ नई कविताएँ सुनने का मोह भी हुआ करता था। किसी बहुत अच्छे संयोग से यह भी हुआ करता था, प्रायः, कि वह और रमेश जी दिल्ली आते तो संग-साथ का, और साथ ही भोजन करने का योग भी कहीं न कहीं बन जाता था - हमारे घर में या अन्यत्र। उनकी आखिरी दिल्ली यात्रा में भी यह संयोग हुआ, और तीन अप्रैल को रमेश जी जब ‘निर्मल स्मृति व्याख्यान’ दे चुके तो रमेश-ज्योत्स्ना जी, कथाकार जयशंकर, गगन गिल और मैंने साथ ही भोजन किया। देर तक बतियाते रहे। यही उनसे मेरी आखिरी भेंट साबित हुई। 4 मई की रात संगीता गुंदेचा से फोन पर उनके न रहने की खबर पाकर, स्मृतियों का ज्वार उठना स्वाभाविक था। इस खबर से कुछ सन्न, और स्तब्ध से, मैं और मेरी पत्नी ज्योति, उनसे जुड़ी कई बातें याद करते रहे। ज्योति से भी उनकी बहुत अच्छी निभती थी, और हम आपस में मानों ‘अपने-अपने प्रिय’ के न रहने के दुख का सामना कर रहे थे। ‘वत्सल निधि’ के मानसर शिविर में रमेश जी और ज्योत्स्ना जी के कमरे में ही हमारी बैठकें जुड़ती थीं। हास-परिहास और विनोद का ज्योत्स्ना जी का अपना ढंग था, इसे मैं उस शिविर में नवीन सागर और अन्य मित्रों की उपस्थिति में कुछ और समझ देख सका था। सबकी हितचिंता करने वाली ज्योत्स्ना जी अपने को कुछ चिंताओं से भी घेरे रखती थीं, पर, जब-तब उनमें एक ऐसी उत्फुल्लता भी प्रकट होती थी, जो उनकी जीवनी-शक्ति का पता देती थी। वह अत्यंत परिश्रमी भी थी। घर-गृहस्थी में अपने को हर तरह के कामों में लगाने के साथ ‘सेवा’ संस्था की पत्रिका ‘अनुसूया’ का वर्षों से संपादन भी कर रही थीं। समाज चेता होने के लिए उन्हें किसी ‘विचार-धारा’ या ‘आइडियोलॉजी’ की जरूरत नहीं पड़ी। वह जीवन-जगत में न्याय-अन्याय को खुली आँखों से देखने वाली थी। उनका साहित्य उनकी समाज-चेता दृष्टि का भी प्रमाण है। विभिन्न कलाओं में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। कोई प्रदर्शनी हो, नृत्य-संगीत-नाटक के कार्यक्रम हों, उन्हें देखने-सुनने पहुँचती थीं। कभी-कभार उन्होंने लिखकर अपनी कला-दृष्टि का परिचय भी दिया। कलाकार हिम्मत शाह पर उनकी टिप्पणी इस सिलसिले में देखने योग्य है। अज्ञेय, निर्मल वर्मा आदि के आत्मीय संस्मरण भी ध्यान में आते हैं। अप्रैल में रमेश जी ज्योत्स्ना जी, जयपुर भी गए थे। और हिम्मत शाह के यहाँ भी जाकर उनसे मिल सके, इस बात से बहुत प्रसन्न थे। हिम्मत भी दोनों को आत्मीय करके ही जानते रहे हैं। ज्योत्स्ना जी कई मामलों में भाग्यशाली भी थी, उनका यह भाग्य मुझे उनकी पुत्रियों शंपा और राजुला के रूप में भी दिखता है। दोनों उन्ही की निर्मितियाँ हैं, कई अर्थों में। कम ही लेखक-कवि ऐसे होते है जिन्हें यह भान पूरी तरह होता है, एक सच्चाई के रूप में, कि साहित्य और कलाएँ अपनी जरूरी सांसारिकता के बावजूद, अपने ही एक अनोखे संसार की उपज भी होती हैं। इस ‘अनोखे संसार’ की भी वह सदस्य थीं। और इसकी पूरी पहचान उन्हें थी। उनके साहित्य-संसार में जो एक जरूरी उजलापन, और गहरी अतीन्द्रियता है, वह इस प्रसंग से भी है। लेखक-कवि-कलाकार के स्त्री या पुरुष होने के कारण उनमें कोई भेदभाव न किया जाये, इसका कायल मैं भी हूँ, पर, यह भी मानता हूँ कि स्त्री-संवेदना कुछ विशिष्ट और अलग भी होती है। हिंदी जगत में इस विशिष्ट संवेदना की पहचान, अगर महादेवी वर्मा और सुभद्राकुमारी चौहान में अलग से की जा सकती है तो वह ज्योत्स्ना मिलन के संसार में भी परखी जा सकती है।
जब मैं 2005 में ‘कल्पना’ के काशी अंक का संपादन कर रहा था तो ज्योत्स्ना जी से भी उसमें लिखने का आग्रह किया क्योंकि उन्ही से मालूम हुआ था कि वह बनारस जा चुकी हैं। इसके लिए जो यात्रा-वृत्तांत-संस्मरण उन्होंने एक आलेख के रूप में ‘सदा साथ रहने वाला बनारस’ शीर्षक से लिखा, उसे मैं इस अंक की एक उपलब्धि ही मानता हूँ। छोटे-छोटे विवरणों और प्रसंगों से जो सारवान माला वह अपने गद्य में पिरोती थीं, उसकी अर्थ-छवियाँ मन को आप्लावित करती हैं। ‘केशरमां’ उपन्यास (भी) इस सिलसिले में सदा याद किया जाएगा। उनके निधन से हमने एक ऐसी कवि-कथाकार-उपन्यासकार और गद्यकार को खोया है, जो अपनी संवेदना-संपन्न दृष्टि के कारण, पीढ़यों के लिए प्रेरक बनी रहेगी।